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सब्जियों में रोग थाम कैसे हो..

सब्जियों में रोग थाम कैसे हो..

सब्जियों में  सूत्रकृमियों  (निमेटोड) की प्रमुख समस्या एवं  इनका प्रबंधन

श्रवण सिंह थोरी, व्याख्याता (कृषि विज्ञान)
पीएम श्री  राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय रींगस, सीकर (राज.)
सूत्रकृमिविज्ञान (Nematology) के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के सूत्रकृमियों का अध्ययन किया जाता है। सूत्रकृमि (Nematodes) छोटे, पतले, खंडहीन तथा धागे जैसे द्विलैंगिक प्राणी होते हैं जिनके पाद नहीं होते हैं। इन्हें 'गोल कृमि' या 'धागा कृमि' भी कहा जाता है।
सूत्रकृमि पौधों की जड़ों में छोटी-बड़ी गांठें बनाते हैं। रोगी पौधे में जड़ों की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होने से उनकी जमीन से पोषक तत्व व पानी सोखने की क्षमता कम हो जाती है जिससे पौधे पीले व छोटे रह जाते हैं। खेत में रोगी पौधों की पत्तियां पीली पडक़र सूख जाती हैं पौधे मुरझाये से रहते हैं और फल व फूल कम व छोटे आते हैं।


सब्जियों में सूत्रकृमि (निमेटोड) प्रजातियां आर्थिक नुकसान करती है| सूत्रकृमि छोटे, पतले, खंडहीन और धागे जैसे द्विलैंगिक प्राणी होते हैं, जिनके पाद नहीं होते हैं| इन्हें गोल कृमि या धागा कृमि भी कहा जाता है| एक शोध के आधार पर सब्जियों में सूत्रकृमि (निमेटोड) की भयानकता होने पर मिर्च-टमाटर मे 60 से 65 बैगन मे 50 से 60 प्रतिशत तक का नुकसान पाया गया है| गाँठ रोग मिलोडोगाइन जाति की सूत्रकृमि से होता है| इनको गाँठ सूत्रकृमि या गोल कृमि के नाम से भी जाना जाता है| ये आकार में बहुत छोटे होते हैं, जिन्हें नग्न नेत्रों से नहीं देखा जा सकता है| केवल सूक्ष्मदर्शी यंत्र से ही देखे जा सकते हैं| यह सूत्रकृमि व्यापक रूप से नर्सरी, उपरी भूमि और अच्छी जल निकास वाली भूमि में पाये जाते हैं|
सब्जियों में सूत्रकृमि रोग के लक्षण

रोगग्रस्त पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती है, सब्जियों में सूत्रकृमि ग्रसित पौधा मुरझा जाता है तथा पौधा बौना रह जाता है|
पौधों को उखाड़कर देखने पर यह दिखता है, कि जड़े सीधी न होकर आपस मे गुच्छा बना लेती है, जड़ों पर गांठें बनकर फूल जाती हैं|
पौधों में फूल व फल देरी से लगते हैं व झड़ने लगते हैं, फलों का आकार छोटा हो जाता है व उसकी गुणवत्ता कम हो जाती है|

सब्जियों में सूत्रकुमि से हानी
यह सूत्रकृमि प्राथमिक और द्वितीयक जड़ों को प्रभावित करके फसल को नुकसान पहुंचाते है| संक्रमित जड़ें भिन्न आकार की गांठे बनाती हैं, इसकी एक निश्चित संख्या से अधिक उपस्थिति पौधों में पानी और अन्य पोषक तत्वों को प्राप्त करने में अवरोध उत्पन्न करती है| जिससे गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव के साथ उत्पादन भी कम हो जाता हैं| मिटटी में पोषक तत्व तथा पानी की उपलब्धता होते हुए भी जडों द्वारा पौधे इन्हें पर्याप्त मात्रा में ग्रहण नहीं कर पाते हैं| जडें फूली हुई प्रतीत होती हैं और पौधे कमजोर, बौने, पीले हो जाते हैं| इस रोग से ग्रसित पौधों में उकठा फफूंद रोग शीघ्र लग जाता हैं| सूत्रकृमियों से हानि मिटटी में उपस्थित इनकी संख्या, बोई जाने वाली इनकी पोषक फसल इत्यादि पर निर्भर करती है| सामान्य अवस्था मे 20 से 40 प्रतिशत तक नुकसान होता है तथा रोग की अधिकता होने पर 70 से 80 प्रतिशत तक भी हानि हो सकती है| एक शोध के आधार पर रोग की भयानकता होने पर कददू वर्गीय सब्जियों में 65 से 70, मिर्च-टमाटर में 60 से 65, बैगन में 50 से 60, गाजर व चौलाई में 40 से 50 प्रतिशत तक का नुकसान पाया गया है|



सब्जियों में सूत्रकृमि का प्रबंधन
सब्जियों में सूत्रकृमियों की रोकथाम के लिये निम्न उपाय अपनाये जा सकते है,जैसे-

फसल चक्र- सूत्रकृमियों की कई प्रजातियां जैसे- ग्लोबोडेरा, मेलाइडोगायनी, हेटरोडेरा इत्यादि मिटटी में लंबे समय तक सक्रिय नहीं रहते इसलिए फसल चक्र अपनाकर इनकी रोकथाम की जा सकती है| जिन खेतों में जड़ गांठ रोग का प्रकोप हो, वहां ऐसी सब्जियों या अन्य फसलों का चुनाव करें, जिनमे यह रोग नही लगता जैसे- राजमा, मटर, मक्का, गेहूं, ग्वार, पालक, सलाद आदि|
स्वच्छ कृषि औजारों का प्रयोग- सब्जियों में सूत्रकृमि रोकथाम हेतु एक खेत दूसरे खेतों में कृषि औजारों के प्रयोग से पहले इन्हें अच्छी तरह से साफ कर लेना चाहिये| ताकि यदि एक खेत में सूत्रकृमियों की उपस्थिति है, तो वे अन्य खेतों में खेती औजारों के माध्यम से न जाएँ|
रोग रहित पौध का चुनाव- सब्जियों में सूत्रकृमि रोकथाम हेतु स्वस्थ, साफ और रोगरहित पौध का चुनाव करना चाहिये|
कार्बनिक खाद का प्रयोग- कार्बनिक खादें सूत्रकृमियों के प्रति प्रतिरोध उत्पन्न करने वाले कुछ ऐसे कवक तथा बैक्टिरिया को बढ़ावा देती है, जिससे इनका संक्रमण कम हो जाता है| खादों को भूमि की जुताई करते समय या बीज बोने या पौध लगाने के 20 से 25 दिन पहले डालना चाहिये| इनमें मुख्यत: नीम, सरसों, महुआ, अरण्डी, मूंगफली आदि की खली 25 से 30 किंवटल प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिये|
शत्रु फसलें व रक्षक फसलें- कुछ फसलें जैसे शतावर, क्रिस्टेयी क्रोटोलेरिया जैसी जड़ गांठ सूत्रकृमि की संख्या को कम करती है| सफेद सरसों व आलू सिस्ट सूत्रकृमि को रोकते है| ये फसलें शत्रु फसलें कहलाती है| इनके अलावा कुछ ऐसी फसलें है, जिनके जडों से ऐसे रासायनिक द्रव्य निकलते है जो सूत्रकृमियों के लिये विष का काम करते है, जैसे- गेंदा, सेवंती इत्यादि इन्हे अंर्तवर्तीय फसलों के रूप में मुख्य फसलों के बीच मे या मुख्य फसल के चारो तरफ 2 से 3 कतारों में लगाना चाहिये|
रोग ग्रस्त पौधों को नष्ट करके- यदि आरंभ में सूत्रकृमि का प्रकोप बहुत कम है, तो रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिये| इससे रोग का प्रकोप कम हो जायेगा|
ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई- मई से जून के महीने में खेतो की मिट्टी पलट हल से 15 से 30 सेंटीमीटर गहरी जुताई करके छोड़ दे, जिससे सूत्रकृमियों के अण्डे व डिंभक उपरी सतह पर आ जाते हैं, जो सूर्य ताप तथा चिडियां आदि द्वारा नष्ट हो जाते हैं, जिससे सूत्रकृमि के प्रकोप को काफी हद तक कम किया जा सकता है|
मृदा सौर निर्जमीकरण द्वारा- यह एक आसान, सुरक्षित व प्रभावशाली विधि है, जिसके द्वारा सूत्रकृमियों के साथ-साथ विभिन्न कीटों, रोगजनक और खरपतवारों की रोकथाम भी हो जाती है| इस विधि में गर्मियों मई से जून में खेत की सिंचाई करके 15 से 30 सेंटीमीटर गहराई तक गहरी जुताई करके उसे 4 से 5 सप्ताह तक पालीथीन शीट से ढ़क दिया जाता है, जिससे मिटटी में उच्च तापक्रम द्वारा सूत्रकृमि नष्ट हो जाते हैं|
खरपतवार नियंत्रण- खेतों में उगने वाले कई प्रकार के खरपतवारों पर सूत्रकृमि पनाह लेकर पोषण प्राप्त करके अपना जीवन चक्र पूरा कर लेते हैं और आने वाली फसल पर आक्रमण करके हानि पहुंचाते हैं| इसलिए समय-समय पर खरपतवारों का नियंत्रण करते रहें|
गर्म जल उपचार- सब्जियों में सूत्रकृमि रोकथाम हेतु 46 डिग्री सेलियस तापक्रम जल द्वारा आलू और प्याज के कंद-बीजों को 1 घण्टे तक उपचारित करने से सूत्रकृमि नष्ट हो जाते हैं|
आच्छादित फसलों द्वारा- कुछ आच्छादित फसलें जैसे- सनई, दूब घास, वेलवेट बिन आदि कुछ ऐसे हैं जिन्हें मुख्य फसल के पहले या बाद में उगाकर सामान्य रूप से जड़ गांठ सूत्रकृमि की रोकथाम कि जा सकती है|
रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करके- सूत्रकृमियों के प्रबंधन का यह सबसे सरल, सस्ता व प्रभावकारी उपाय है| किसान बन्धु सूत्रकृमि रोग रोधी किस्में उगा कर भी इनपर नियंत्रण पा सकते है, यहाँ टमाटर और मिर्च की सूत्रकृमि रोग रोधी किस्मों का उदाहरण है, जैसे- टमाटर की कल्याणपुर-1,2,3 जो की रेनीफार्म सूत्रकृमि रोधी किस्में है| मिर्च की एन पी- 46-ए, पूसा ज्वाला, मोहिनी जो जड़ गांठ सूत्रकृमि रोधी किस्में है|
पौध संगरोध- एक देश से दूसरे देशों में सूत्रकृमि के प्रसार को रोकने के लिये पादप संगरोध नियमों का बहुत महत्व है, उदाहरण के लिये आलू का सिस्ट सूत्रकृमि पर ये नियम लागू है|




सब्जियों में सूत्रकृमि का रासायनिक नियंत्रण

कार्बोफ्यूरान या फोरेट 2 किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टर भूमि में मिलायें या बीज को उपचारित करें या पौध को कार्बोसल्फॉन 25 ई सी, 500 पी पी एम से 1 घंटे तक उपचारित करके लगायें|
सब्जियों में सूत्रकृमि रोकथाम हेतु कुछ दानेदार रसायन जैसे- एल्डीकार्ब 11 किलोग्राम हेक्टर की दर से मिटटी मे मिलाये|
डाईक्लोरोप्रोपीन या ऑक्सामिल को 5 से 10 किंवटल प्रति हेक्टर या निमागान 120 किलोग्राम हेक्टर की दर से भूमि मे मिलाना चाहिये|
सब्जियों में सूत्रकृमि रोकथाम हेतु पौध को कार्बोसल्फान 1 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर आधा घंटा उपचारित करके लगाये|

सूत्रकृमि का समन्वित रोग प्रबंधन
रोग प्रबंधन की विभिन्न विधियों में से किसी एक विधि द्वारा सूत्रकृमियों की पूरी तरह रोकथाम नही कि जा सकती है, तो दो या दो से अधिक विधियों का समावेश करके समन्वित रोग प्रबंधन द्वारा सूत्रकृमियों की रोकथाम की जा सकती है, जैसे-

गीष्मकालीन गहरी जुताई करनी चाहिये|
नर्सरी लगाने के पूर्व बीज क्यारियों को कार्बोफ्यूरान, फोरेट आदि से उपचारित करना चाहिये|
फसल लगाने के 20 से 25 दिन पहले कार्बनिक खाद को मिटटी में मिलाना चाहिये|
फसल चक्र अपनाये|
अंर्तवर्तीय फसल के रूप मे शतावर, गेंदा की 2 से 3 कतार मुख्य फसल के बीच में लगाये|
सब्जियों में सूत्रकृमि रोकथाम हेतु रोग प्रतिरोधी जातियों का चयन करें|
अंत में यदि इन सबसे रोकथाम नहीं हो तब रसायनों का प्रयोग करें|

सब्जियों में सूत्रकृमि के कारगर नियंत्रण के लिये सबसे पहले इनकी पहचान, रोगजनक, रोग के लक्षण आदि का पहचान होना आति आवश्यक है| जिससे इसकी रोकथाम करने के विभिन्न उपाय अपनाने में आसानी हो सके और वर्तमान में बढ़ते हुये रासायनिक तत्वों के प्रयोगों के कारण भूमि, जल, पर्यावरण, खाद्य पदार्थ के खराब होने और मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले विपरीत असर को देखते हुये सूत्रकृमि नियंत्रण के लिये समन्वित रोग प्रबंधन का तरीका अपनाना चाहिये|
  

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